आज सुबह मैने प्रेस काम्पलेक्स के पास 3 छोटे बच्चों को देखा जिनमें से दो बच्चे नंगे पैर थे जो गंदगी के ढेर से चिलचिलाती धूप में सीमेन्टेड रोड पर पन्नियाँ बीन रहे थे। ये तो तय है कि वे गरीब थे लेकिन उन्हें इतनी समझ कहाँ कि चप्पलें खरीदने के पैसे कहाँ से आयें । पहले तो पेट के लिये पैसे कमालें। हम लोग भी शरीर को नजरअंदाज कर लगे हुये हैं पैसों को कमाने में। हल तो सभी को पता है लेकिन उसके लिये भी पैसा चाहिये। कुछ लोग पैसों से पैसा कमाने में लगे हुये हैं लेकिन यदि डायरेक्ट गरीबों की सेवा कर दान पुण्य कमाने में क्या हर्ज है। बड़े बड़े सेवा संस्थानों को लाखों रूपये दान करने से अच्छा है अपने आस पास की गरीबी कम करने का पुण्य कमाया जाये। याद रहे कि भिखरियों जो कि मंदिरों में और ट्रेफिक सिग्नल पर रेग्यूलर अपना ठिया जमाये रहते हैं मै उनकी बात नही कर रहा। दीन, हीन, दुखी, जीवन में छोटी मोटी आवश्यकता पूरी न होने पर पशुओं जैसे अपने शरीर को ढो रहे लोगों की ही सेवा बिना दिखावे के की जाये। लेकिन अपने कर्म करते हुये। जरूरतमंद कोई विद्यार्थी, मध्यमवर्गी परिवार का मुखिया, कोई लाचार माँ या महिला जिनको सहायता की आवश्यकता तो है लेकिन वे दूसरों के आगे हाथ फैलाने में शर्म महसूस करते हैं।
बहुत सुन्दर और सार्थक सुझाव...
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
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संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
आपका-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक आलेख अभी कुछ डीनो पहले मैंने भी इसी बात पर कुछ लिखा था।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक
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