जब हम सत्संग सुनने पंडाल जहाँ सत्संग हो रहा होता है, जहाँ हमारे गुरू की अमृतवाणी बह रही होती है उस पंडाल में जाते हैं तो हमें अधिकतर अपने जूते-चप्पल अपने पास रखकर बैठने होते है ताकि कोई उसे चुरा न ले जाये। लेकिन इसका एक ओर फायदा होता है कि इन जूते-चप्पलों को देखकर तनाव भी अधिकतर हमसे दूर रहता है चाहे वह हमारे फैमली मेम्बर जो हमारे साथ आये के रूप में क्यों न हो। सत्संग पंडाल में हमारी पत्नी जिसका घर में और हर जगह मुँह चलता रहता है भी चुप रहती है, बच्चे भी अनावश्यक डिमांड नही करते। क्या पता ये उन जूते-चप्पलों से डर कर इस तरह का व्यवहार करते हों। यही तरीका यदि हम घर में अपना लें तो शायद हम घर में भी अपने गुरू का सत्संग शांति पूर्वक सुन सकते हैं। ये तो हुआ व्यंग पर इस व्यंग के माध्यम से मै आपको ये बताना चाहता हूँ कि जब हम जीवन से घबरा कर, तनाव के कारण अपने अस्तित्व के उद्देश्य को जानने, सुखी होते हुये शांति की तलाश में सत्संग में जाते हैं तो हम क्यो इस सत्संग के मध्य किसी का हस्तक्षेप पसंद करें। शांति एक ऐसी चीज है जो भगवान के शरण में ही मिलती है जिसे हम ध्यान, आध्यात्म में परिश्रम कर पाते हैं। परिश्रम के आशय हमारा प्रात: नियम पूर्वक समय पर जल्दी उठकर प्राणायाम, ध्यान, जप से और हमारे मन को नियंत्रित करने से है। शांति बड़े बड़े धनी और राजा महाराजाओं और नेताओं को भी नसीब नही होती, कुछ मात्रा में मिलती भी है तो इच्छाओं और लोभ के शमन को लम्बे अंतराल तक अपनी आदत में लाने पर मिलती है। अब आप ही सोचिये कि आपकी इस कीमती शांति को कैसे कोई अपने ओंछे व्यवहार, मुँह चलाने की आदत से भंग कर सकता है। इसलिये हमें अपनी इस शांति की निरंतरता के लिये जब हम आध्यात्मिक क्रियाओं में घर में व्यस्त हों तो अपने फैमली मेम्बर से समझाते हुये उसके हानि के कारण उत्पन्न क्रोध और तनाव का हवाला देते हुये उनको ये कहे कि कृपया जितनी देर आप ध्यान और सत्संग करें ये मेम्बर आपकों स्वयं की आदतों पर काबू रख कर सहयोग करें। ये उदाहरण आप अपनी फैमली के मेम्बर्स को बता सकते हैं : जैसे आपको बचपन में क्लास में पढ़ाई के समय शोर करने पर दंड मिलता था जो कि लीगल होता था क्योकि आपने अन्य पढ़ाई में रत विद्यार्थियों को डिस्टर्व किया था।
सार्थक अभिव्यक्ति ....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
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