महाभारत -5/180में मन्महर्षि श्रीकृष्ण दैपायन बादरायण ’वेदव्यास’ जी की वाणी को श्री गणेश जी ने अलपिबद्ध किया है कि पूर्वकाल में धन के मद से किसी धनिक व्यवसायी ने कठोर ब्रत का पालन करने वाले तपस्वी मरीचि कुमार महर्षि कश्यप को अपने रथ से धक्का देकर गिरा दिया। वे धरातल पर गिरने की पीड़ा से कराहते हुए आत्महत्या के लिए उद्यत कुपित स्वर में बोले–“अब मैं प्राण दे दूंगा, क्योंकि इस संसार में निंर्धन मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।” उन्हें इस प्रकार मरने की इच्छा लेकर बैठे मन-ही-मन धन लोभ-मोह के मायाजाल में फंसे देख एक सियार ध्यान रहे ऐसी मान्यता रही है कि सतयुग में सभी प्राणी तथा वनस्पति भी बोलने- कहने लगा – मुनिवर । सभी प्राणी मनुष्य योनि पाने की इच्छा रखते हैं । उसमें भी ब्राह्मणत्व की प्रशंसा तो सभी लोग करते हैं । आप तो मनुष्य हैं, ब्राह्मण हैं और श्रोत्रिय भी हैं । ऐसा परम दुर्लभ मानव तन पाकर भी उसमें दोष देखकर आपके लिए आत्महत्या हेतु उद्यत होना अनुचित बात है ।जिनके पास मालिक के दिये दो हाथ हैं, उन्हें मैं कृतार्थ मानता हूं । इस जगत में जिसके पास एक से अधिक हाथ हैं, उनके जैसा सौभाग्य प्राप्त करने की आकांक्षा मुझे बारम्बार होती है। जिस प्रकार आपके मन में धन की लालसा है, उसी प्रकार हम पशुओं को मनुष्यों के समान हाथ पाने की अभिलाषा रहती है। हमारी दृष्टि में हाथ मिलने से अधिक अन्य कोई दूसरा लाभ नहीं। हमारे शरीर में कांटे गड़ जाते हैं, पर हाथ न होने के कारण हम उन्हें निकाल नहीं पाते । जो छोटे-बड़े जीव-जन्तु हमारे शरीर को डंसते हैं, उनकों भी हम हटा नहीं सकते, किन्तु जिनके पास सर्वेश्वर के दिये दस अंगुलियों से युक्त दो हाथ हैं, वे अपने हाथों से उन कीड़े-मकोड़ों को हटा देते अथवा नष्ट कर देते हैं । वे वर्षा, सर्दी और धूप से अपनी रक्षा कर लेते हैं, वस्त्राभूषण पहनते हैं, खाद्यान्न-जल –पान तथा स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करते हैं, शय्या बिछाकर चैन की नींद सोते हैं तथा एकान्त स्थान का सुख पूर्वक उपभोग करते हैं ।हाथ वाले मनुष्य बैलों से जुती हुई गाड़ी पर चढ़कर उन्हें हांकते है और इस धरातर में उनका यथेष्ट उपभोग करते हैं तथा हाथ से ही अनेक प्रकार के उपाय करके अन्य प्राणियों को भी अपने वश में कर लेते हैं। जो दुःख बिना हाथ वाले आपको नहीं सहने पड़ते । अपना प्रारब्ध बड़ा श्रेष्ठ है कि आप गिद्ध, चमगादड़, सांप, छछुंदर,चूहा, मेंढक अत्यादि किसी अन्य पाप योनि में उत्पन्न नहीं हुए । आपको इतने ही लाभ से संतुष्ट रहना चाहिए । इससे अधिक लाभ की बात और क्या हो सकती है कि आप 84 लाख योनियों में सर्वश्रष्ठ ब्राह्मण हैं । मुझे ये कीड़े-मकोड़े खा रहे हैं, जिन्हें निकल फेंकने की शक्ति मुझमें नहीं है। हाथ के अभाव में होने वाली मेरी दुर्दशा को आप प्रत्यक्ष देख-परख लें । आत्महत्या करना पाप है, यह सोचकर ही मैं अपने इस शरीर का परित्याग नहीं करता हूँ । मुझे भय है कि मैं इससे भी निकृष्ट किसी अन्य पाप योनि में न गिर जाऊं ।यद्यपि मैं इस समय जिस श्रृगाल योनि में हूं , इसकी गणना भी पाप योनियों में ही होती है, तथापि अन्य अनेकानेक पाप योनियां इससे भी निम्न श्रेणी की है। कुछ मनुष्य देव पुरूष से भी अधिक सुखी हैं, और कुछ पशुओं से भी अधिक दुःखी लेकिन फिर भी मैं कहीं किसी व्यक्ति को ऐसा नहीं देखता, जिसको सर्वधा सुख ही सुख प्राप्त हो । मनुष्य धनी होकर राज्य पाना चाहते हैं, राज्य से देवत्व की इच्छा करते हैं और देवत्व से इन्द्रपद की कामना करते हैं । यदि आप धनी हो जाएं तो भी ब्राह्मण होने के कारण राजा नहीं हो सकते । यदि कदाचित राजा हो जाये तो ब्राह्मण देवता नहीं हो सकते । यदि आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त कर लें तो भी इन्द्रपद प्राप्त नहीं कर पाते । यदि इन्द्रसन भी प्राप्त कर लें तो भी आप उतने से ही संतुष्ट नहीं रह सकेंगे क्योंकि प्रिय वस्तुओं का लाभ होने से कभी तृप्ति नहीं होती। बढ़ती हुई तृष्णा जल से नहीं बुझती ईँधन पाकर जलने वाली आग के समान वह और भी प्रज्वलित होती जाती है।आपके अंदर शोक भी है और हर्ष भी । साथ ही सुख और दुःख दोनों है, फिर शोक करना किस काम का ? बुद्धि और इन्द्रियां ही समस्त कामनाओं और कर्मो की मूल है। उन्हें पिंजड़ में बंद पक्षियों की भांति अपने काबू में रखा जाय तो कोई भय नहीं रह जाता । मनुष्य को दूसरे सिर और तीसरे हाथ के कटने का कभी भय नहीं रहता, जो वस्तुतः है ही नहीं । जो किसी विषय का रस नहीं जानता, उसके मन में कभी उसकी कामना भी नहीं होती । स्पर्श, दर्शन तथा श्रवण से ही कामना का उदय होता है। मद्य तथा मांस इन दोनों का आप कभी स्मरण नहीं करते होंगे, क्योंकि इन दोनों का आपने कभी पान तथा भक्षण नहीं किया है परन्तु सद्यप तथा मांसाहरी के लिए इन दोनों से बढ़कर कहीं और कोई भी पेय तथा भक्ष्य पदार्थ हैं, जिनका आपने पहले कभी सेवन नहीं किया है, उन खाद्य पदार्थ की स्मृति आपको कभी नहीं होगी । मेरी मान्यता है कि किसी वर्जित वस्तु को ग्रहण न करने,न छूने और न देखने का नियम लेना ही व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है, इसमें संशय नहीं । जिनके दोनों हाथ बने हुए हैं निःसन्देह ही बलवान तथा धनवान हैं।कितने ही मनुष्य बारम्बार जीवन-मरण और बन्धन के क्लेश भोगते रहते हैं, लेकिन फिर भी वे आत्माहत्या नहीं करते । अन्य अनेक सबल, सम्पन्न, प्रबुद्ध मनस्वी भी दीन-हीन, निन्दित और पापपूर्ण वृत्ति से जीवन यापन करते हैं। भंगी अथवा चाण्डाल भी आत्महत्या करना नहीं चाहता, वह अपनी उसी जीविका से संतुष्ट रहता है। कुछ मनुष्य अंग-भंग, अनंग-अपंग, अपाहिज- लकवाग्रस्त तथा निरन्तर अस्वस्थ ही रहते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें हम धिक्कार के पात्र नहीं कह सकते । आपके सर्वग सही और निर्विकार है । आपका शरीर स्वस्थ और सुंदर है, इस कारण इस लोक में कोई भी आपको धिक्कार नहीं सकता । यदि आप पर दिवालिया, पदच्युत, जाति-समाज-संघ और धर्म –सम्प्रदाय-पंथ से बहिष्कृत तथा क्षेत्र बाहर अथवा देश निकाला विषयक कोई कलंक लगा हो तो भी आपको आत्माहत्या करने का विचार नहीं करना चाहिए । अतएव यदि आप मेरी बात मानें तो धर्मपालन के लिए दृढ़ संकल्प के साथ उठ खड़े होइये और सावधान होकर यम-नियम, सत्य-अहिंसा, दान-धर्म, स्वाध्याय और अग्निहोत्र का पालन कीजिए । किसी के साथ स्पर्धा मत कीजिए । जो ब्राह्मण स्वाध्याय में लगे रहते तथा यज्ञ करते और कराते है, वे भला किसी भी प्रकार की चिंता क्यों करेंगे और आत्माहत्या जैसी बुरी बात क्यों सोचेंगे ?पूर्वजन्म में मैं एक ब्राह्मण था और कुतर्क का आश्रय लेकर वेदवाणी की निंदा करता था प्रत्यक्ष के आधार पर अनुमान को प्रधानता देने वाली थोथी तर्क विद्या पर ही उस समय मेरा अधिक अनुराग था। मैं सभाओं में जाकर तर्क तथा युक्ति की बातें ही अधिक बोलता था। जहां अन्य ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक वेद वाक्यों पर विचार करते, वहां मैं बलपूर्वक जाकर आक्रमण करके उन्हें खरी-खोटी सुना देता तथा स्वयं ही अपना तर्कवाद बका करता था । मैं नास्तिक, सब पर संदेह करने वाला तथा मूर्ख होकर भी अपने आप को पंण्डित मानने वाला था। यह श्रृगार योनि मेरे उसी कुकर्म का फल है। अब मैं सैकड़ों दिन-रात निरन्तर साधना करके भी क्या कभी वह उपाय कर सकता हूँ ? जिससे आज सियार की योनि में पड़ा हुआ मैं पुनः वह मनुष्य योनि पा सकूं । जिस मनुष्य योनि में मैं संतुष्ट तथा सावधान रहकर यज्ञ,दान तथा तपस्या में लगा रह सकूं, जिसमें मैं जानने योग्य वस्तु को जान सकूं और त्यागने योग्य वस्तु को त्याग सकूं । यह सुनकर महर्षि कश्यप अचंभित होकर बोले- “श्रृगाल । तुम तो बड़े कुशल निपुण और वेदज्ञ हो, विद्वान, प्रबुद्ध तथा विवेकी हो । मैं तुम्हारे अभिमत से पूर्णतः सहमत हूं कि आत्माहत्या करने का विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि आत्महत्या हेतु उद्यत होना भी उचित नहीं है। ऐसा कहकर कश्यप मुनि धर्म पालन हेतु उठ खड़े हुए और सियार से कृतज्ञता पूर्वक विदा होकर अपने गृहस्थ आश्रम की ओर प्रस्थान किए ।
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