आज से स्कूलों का बिजनेस चालू हो गया है। वे स्कूल जो बड़े-बड़े ट्रस्टों द्वारा संचालित किये जाते हैं जो कम दाम में अच्छी शिक्षा का दावा करते हैं जिन्हें हमारे देश के कोने कोने से और विदेशों से भरपूर वित्तीय सहायता मिलती है। जिनमें बच्चों को पढ़ाना ऐसा लगता है जैसे कि किसी हाउसिंग लोन की ईएमआई भर रहे हों। ये स्कूल इस शिक्षा सत्र में कमाने का नये नये बहाने ढँूढ़ रहें हैं जैसे बहुत से स्कूल कमाने के लिये किसी न किसी तरह बच्चों की यूनिफार्म चेंज कर या किताबों का पब्लिकेशन चेंज कर अभिभाववकों को उसे खरीदने को कह रहें हैं । और हद तो तब हो जाती है जब आपका बच्चा केजी 2 से पहली क्लास में जाता है तो ये स्कूल संचालक रिएडमिशन चार्ज वसूल रहे हैं। आप अपने आस पास की यूनिफार्म और स्कूल की किताबों की दुकानों पर भीड़ देख इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं।
कुछ दिन पहले न्यूज पेपर्स में ये समाचार छपा था कि कलेक्टर के आदेश हैं कि स्कूल अभिभावकों को इन यूनिफार्म और किताबों को किसी पर्टिकुलर जगह से खरीदने के लिये मजबूर नही कर सकते किंतु इस आदेश का असर कहीं भी देखने को नही मिल रहा हैं। कृपया प्रशासन से निवेदन हैं कि इन स्कूलों को मनमर्जी से हर वर्ष यूनिफार्म और किताबों का पब्लिकेशन चेंज करने का विस्तृत कारण बताने का आदेश जारी करना चाहिये और इनसे ये भी पूछना चाहियें कि ये उन किताबों को बच्चों को कैसे रिकमंड कर रहें हैं जिन पर प्राइस के दो-दो स्टीकर्स एक के ऊपर एक लगे होते हैं और दोनों में कम से कम 75प्रतिशत का फर्क होता हैं। और वे स्कूल जो अनुदान पाकर गरीब बच्चो को शिक्षा देने का वादा करते हैं वे केवल झुग्गी झोपड़ी ऐरियों में ही सीमित हैं उन्हें कौन बतायें कि गरीब केडेगरी के कुछ बच्चें शहर की पाश कॉलोनियों में भी निवास करते हैं। और इन्हें ये भी सोचना चाहिये कि मिडिल क्लास के बच्चे भी तो गरीब की ही केडेगरी में आते हैं भले ही शासन उन्हें अमीर समझ रहा हो। हमारे शहर में जिस अनुपात में नई नई कॉलोनियां बन रही हैं उस अनुपात में स्कूलों का प्रतिशत 5प्रतिशत भी नही दिखाई देता। गांवों में तो आपको स्कूल मिल जाते हैं पर शहर में यदि आप किसी नई कालोनी में रहते हैं तो आपको अपने बच्चें के लिये स्कूल ढंूढने में निराशा ही हाथ लगेगी।
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