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बुधवार, 20 जून 2012

जो केवल महसूस किया जा सकता है, जो सदैव नवीन है, ताजा है (Regular meditation)

Regular meditation
एक सिम्पल सा गणित है कि जिस संख्या के आगे 0 शून्य लगा होता है उसकी महत्ता कम होती है जबकि जिस संख्या के पीछे शून्य 0 लगा हो और 000000000000 लगते जायें तो उसकी महत्ता बढ़ती जाती है। हमने केवल पढ़ा और सुना है कि परमात्मा या भगवान के दर्शन बहुत से महात्माओं और ज्ञानी पुरूषों ने किये हैं लेकिन आज तक हमने हमारे बुजुर्गों से नही सुना कि उनके भी बुजुर्गों ने कभी परमात्मा के दर्शन किये हों। जहाँ तक हम अपने अभी तक के जीवन का विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि हमने केवल परमात्मा को महसूस किया है और हर विपरीत परिस्थिति में करते हैं। जबकि कुछ भावनाओं में बह जाते हैं और कह देते हैं कि जिसने उनकी कठिन समय में सहायता कि वे स्वयं भगवान थे। और कुछ तो यह कहते हैं कि हमने साक्षात् भगवान के दर्शन किये। इन बातों में सच्चाई तो है लेकिन जो ये कहते हैं कि हमने साक्षात भगवान के दर्शन किये वे वास्तव में उस रेगिस्तान में प्यासे की तरह होते हैं जिन्हे प्रचंड गर्मी में मिराज का भ्रम होता है जैसे हिरन को रेगिस्तान में होता है और उसकी मृगतृष्णा बढ़ती है कम नही होती या जो तपती दुपहरी में सड़क पर पानी का भ्रम लगता है उसे ही पानी समझ बैठते हैं। ये वैसे ही असंभव लगता है जैसे कि हम गुलाब, मोगरा, रात की रानी, चमेली आदि पुष्पों की सुगंध से अपना ध्यान उस ओर करते हैं लेकिन उस सुगंध को देख नही सकते और ना ही उस वायु या हवा के दर्शन कर सकते जो इस सुगंध की वाहक होती है जिस के कारण ही हमें अपनी ओर आती सुगंध महसूस होती है जिसका हम अनुभव कर यह तय करते हैं कि यह किस फूल की सुगंध है। भले की फूल कितने ही रंग का हो जैसे गुलाब लेकिन सुगंध वही जानी पहचानी आती है और यही फूल हम अपने गमले में सजा लें अगले दिन वह बासा हो जाता है और सुगंध कहाँ लुप्त हो जाती है पता नही पड़ता लेकिन यदि आप दोबारा ताजा गुलाब लायें तो आप वहीं सुगंध पायेंगे जो कि कभी बासी नही होती हमेशा नवीन और ताजा रहती है। भले ही हम कितने ही पुराने या नये तरीकों से उस परमात्मा को याद करे लेकिन महसूस वही होता है जो सबको होता है जिसको हम पुराणों और कथाओं में पढ़ते हैं लेकिन हम जो महसूस करते हैं उसका वर्णन शब्दों में किया जा सके असंभव लगता है केवल हम जो पुराणों और कथाओं में वर्णित है उसका समर्थन करते हैं कि हमने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया है।
हमे शून्य से शुरूआत करनी है न कि शून्य को अपने आगे रख कर कर्मकांड करते-करते पूरा जीवन गंवाना है। हमें अपने बाहर की यात्रा को विराम लगाते हुये अंदर की यात्रा और स्वयं को जानने की यात्रा आरंभ करनी है। हमें ध्यान और नाम जप और आध्यात्मिक ज्ञान के सतत अध्ययन के द्वारा अपने पीछे शून्य की शक्ति को आमंत्रित करना है जिससे कि हमारी इस संसार में दुखों और सुखों में समान स्थिति बनी रहे। और हमारी समझ बढ़ती रहे। हमें इतनी आनंद की प्राप्ति इस संसार में हो कि हम जीते जी अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगाने की इच्छा रखें ना कि मरने के बाद हमारे परिजन हमारे नाम के आगे स्व. लगाये, जबकि हमने अपने पूरे जीवन को लोभ, मोह, अहंकार, क्रोध आदि के कारण इस जीवन को नर्क की तरह भोगा हो। और यदि   वर्तमान परिस्थिति में आप बुरे कार्यकलापों में लगे हैं जिससे कि किसी का हित कम अहित अधिक होने की संभवना बनी रहती है तो आज से ही अच्छे पुण्य कर्म और स्वयं के लिये अपने मन की शांति के लिये अच्छे कार्यकलापों में लगें ताकि हमारा एक नया जन्म हो। हम किसी के लिये उस दीपक की तरह हो जायें जो स्वयं तो ज्योति धारण किये रहता है लेकिन उसका अधिकतम लाभ अंधकार में फंसे लोगों को मिलता है उनके अंधकारमय जीवन में एक ज्योति के दर्शन होते हैं। जरूरी नही कि हम दूसरो का ही भला कर सकते हैं हम इस तरह स्वयं की भी एक बहुत बड़ी सहायता कर रहे होते हैं जिससे कि अंधकार हमसे दूर रहता है। सीधी सी बात है यदि हम मिर्ची खा रहे हैं तो उसकी जलन और स्वाद हमें ही लेना होगा लेकिन यदि हम कुछ मीठा खायेंगे तो भला हमारा ही होगा हम प्रसन्न ही रहेंगे। यदि हम ये सोचे कि हम मिर्ची खाने से पहले उस तीखेपन को निकाल बाहर करें तो यह ऐसे ही असंभव है जैसे ऊपर वर्णित उदाहरण में फूलों की सुगंध जो दिखाई नही देती उसे आप पकड़ोगे कैसे। और यदि हम ये सोचे कि बिना मीठा खाये उसमें से मिठापन निकाल कर ग्रहण कर लें या महसूस कर लें तो ये भी असंभव है केवल हम उस पुराने मीठे जो कि बहुत पहले खाया गया था कि याद कर सकते हैं लेकिन वह याद नवीन केवल मीठा खाने से ही होगी। बात इतनी सी है कि वह परमात्मा है लेकिन कण कण में व्याप्त है और कण अनिवार्य है। महसूस होगा, हमे लगेगा कि है लेकिन कोई माध्यम जरूरी है। जैसे सुगंध के लिये फूल।

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